कुरुक्षेत्र युद्ध की समाप्ति के बाद भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर लेटकर अपने स्वर्गारोहण की प्रतीक्षा कर रहे थे, तब श्रीकृष्ण के सुझाव पर युधिष्ठिर उनके पास राजधर्म की दीक्षा लेने के लिये गए। पितामह और युधिष्ठिर का यह संवाद महाभारत के शान्ति पर्व के अंतर्गत राजधर्मानुषाशन पर्व में मिलता है, जिसे प्रायः भीष्म नीति ने नाम से जाना जाता है। सूत्रधार की इस शृंखला के द्वारा हम महान पितामह भीष्म की उस सीख को रोचक तरीके से आप तक पहुंचाएंगे। https://play.google.com/store/apps/details?id=com.sutradhar
S1 E20 · Fri, August 26, 2022
राजा के लिये जो रहस्य की बात हो, शत्रुओं पर विजय पाने के लिये वह जिन लोगों का संग्रह करता हो, विजय के उद्देश्य से उसके हृदय में जो कार्य छिपा हो अथवा उसे जो न करने योग्य कार्य करना हो, वह सब उसे सरल भाव से गुप्त रखना चाहिये। राज्यं हि सुमहत् तन्त्रं धार्यते नाकृतात्मभिः। न शक्यं मृदुना वोढुमायासस्थानमुत्तमम्।। राज्य एक बहुत बड़ा तन्त्र है। जिन्होंने अपने मन को वश में नहीं किया है, ऐसे क्रूर स्वभाव वाले राजा उस विशाल तन्त्र को सम्हाल नहीं सकते। इसी प्रकार जो बहुत कोमल स्वभाव के होते हैं, वो इस भार को वहन नहीं कर सकते। उनके लिये राज्य बड़ा भारी जंजाल हो जाता है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E19 · Mon, August 22, 2022
गुप्तचर रखना, दूसरे राज्यों में अपना राजदूत नियुक्त करना, सेवकों के प्रति ईर्ष्या न करते हुए उन्हें समय पर वेतन देना, युक्ति से कर एकत्र करना, अन्यायपूर्वक प्रजा के धन को न हड़पना, सत्पुरुषों की संगति करना, शूरता, कार्यदक्षता, सत्यभाषण, प्रजा का हित करना; सरल या कुटिल उपायों से शत्रुओं में फूट डालने का प्रयास करना, पुरानी इमारतों की मरम्मत करना, दिन-दुखियों की देखभाल करना, समय आने पर शारीरिक और आर्थिक दण्डों का प्रयोग करना, संग्रह-योग्य वस्तुओं का संग्रह करना, बुद्धिमान लोगों के साथ समय व्यतीत करना, पुरस्कार आदि द्वारा सेना का उत्साह-वर्धन करते रहना, प्रजा-पालन के कार्यों में कष्ट का अनुभव न करना, कोष को बढ़ाना, नगर की रक्षा का प्रबंध करना और इस विषय में दूसरों पर पूरा विश्वास न करना, पुरवासियों द्वारा राजा के विरुद्ध की गुटबंदियों को फोड़ देना, शत्रु, मित्र और मध्यस्थों पर दृष्टि रखना, अपने सेवकों में गुटबन्दी न होने देना, स्वयं ही अपने नगर का निरीक्षण करना, दूसरों को आश्वासन देना, नीतिधर्म का अनुसरण करना, सदा ही उद्योगशील बने रहना, शत्रुओं की ओर से सावधान रहना और नीचकर्मी तथा दुष्ट पुरुषों का त्याग कर देना - ये सभी राज्य की रक्षा के साधन हैं। इस विषय में देवगुरु बृहस्पति ने यह श्लोक कहे हैं, उत्थानहीनो राजा हि बुद्धिमानपि नित्यशः। प्रधर्षणीयः शत्रूणां भुजङ्ग इव निर्विषः।। अर्थात् जो राजा उद्योगहीन हो वह विषहीन सर्प के समान सदैव शत्रु से पराजित होता है। न च शत्रुरवज्ञेयो दुर्बलोऽपि बलीयसा। अल्पोऽपि हि दहत्यग्निर्विषमल्पं हिनस्ति च।। बलवान पुरुष कभी दुर्बल शत्रु की अवहेलना न करे अर्थात् उसे छोटा समझकर उसकी ओर से लापरवाही न दिखाये; क्योंकि आग थोड़ी सी भी हो पर जला डालती है और विष थोड़ा सा भी हो तो मार डालता है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E18 · Fri, August 19, 2022
जो बुद्धिमान, त्यागी, शत्रुओं की दुर्बलताओं को जानने का प्रयत्न करने वाला, देखने में प्रसन्नचित्त, सभी वर्णों के साथ न्याय करने वाला, शीघ्र कार्य करने में समर्थ, क्रोध पर विजय पाने वाला, आश्रितों पर कृपा करने वाला, महामनस्वी, कोमल स्वभाव वाला, उद्योगी, कर्मठ तथा आत्मप्रशंसा से दूर रहने वाला है; उस राजा के कार्य उचित रूप से सम्पन्न होते हैं और वह समस्त राजाओं में श्रेष्ठ है। पुत्रा इव पितुर्गेहे विषये यस्य मानवाः। निर्भया विचरिष्यन्ति स राजा राजसत्तमः।। जैसे पुत्र अपने पिता के घर में निर्भीक होकर रहते हैं, उसी प्रकार जिस राजा के राज्य में प्रजा भय के बिना रहती है, वही राजा सबसे श्रेष्ठ है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E17 · Mon, August 15, 2022
जो राजा सब पर संदेह करता है और प्रजा का सर्वस्व हर लेता है, वह लोभी और कुटिल राजा एक दिन अपने ही लोगों के हाथों मारा जाता है। जो राजा बाहर और भीतर से शुद्ध रहकर प्रजा के हृदय को अपनाने का प्रयास करता है, वह शत्रुओं का आक्रमण होने पर भी उनके वश में नहीं पड़ता। यदि उसका पतन भी हो जाए तो वह सहायकों को पाकर शीघ्र ही उठ खड़ा होता है। अक्रोधनो ह्यव्यसनी मृदुदण्डो जितेंद्रियः। राजा भवति भूतानां विश्वास्यो हिमवानिव।। जिसमें क्रोध का अभाव होता है, जो बुरी आदतों से दूर रहता है, जिसका दण्ड भी कठोर नहीं होता तथा जो इंद्रियों को वश में रखता है; वह राजा हिमालय के समान प्रजा का विश्वासपात्र बन जाता है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E16 · Fri, August 12, 2022
जो शूरवीर और भक्त हों, जिन्हें विपक्षी लुभा न सके; जो कुलीन, निरोगी एवं शिष्टाचार वाले हों तथा सभ्य लोगों के साथ उठते-बैठते हों। जो आत्मसम्मान की रक्षा करते हुए दूसरों का अपमान न करते हों। धर्मपारायण, विद्वान, लोकव्यवहार के ज्ञाता और शत्रुओं की गतिविधियों पर दृष्टि रखने वाले हों। जिनमें साधुता हो और जिनका चरित्र पर्वत के समान अडिग हो, ऐसे लोगों को ही राजा अपना सहायक नियुक्त करे। सहायान् सततं कुर्याद् राजा भूतिपुरष्कृतः। तैश्च तुल्यो भवेद् भोगैश्छत्रमात्राज्ञयाधिकः।। ऐसे सहायक को राजा भलीभाँति पुरस्कृत करे और उन्हें अपने समान सभी सुविधाएं उपलब्ध कराए। केवल राजा के समान छत्र धारण करने और राजाज्ञा देने में ही राजा इस सहायकों से अधिक होना चाहिये। प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों स्थितियों में राजा को इनके साथ समान व्यवहार करना चाहिये। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E15 · Mon, August 08, 2022
राजा को अपनी प्रजा का भरण-पोषण करना चाहिये। राजा साधु पुरुषों के हाथ से कभी धन न छीने और असाधु पुरुषों से दण्ड स्वरूप धन का अर्जन करे। स्वयं प्रहर्ता दाता च वश्यात्मा रम्यसाधनः। काले दाता च भोक्ता च शुद्धाचारस्तथैव च।। राजा स्वयं दुष्टों पर प्रहार करे, दानशील बने, मन को वश में रखे, सुरम्य साधन से युक्त रहे, समय-समय पर धन का दान करे और उपयोग भी करे तथा निरंतर शुद्ध और सदाचारी बना रहे। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E14 · Fri, August 05, 2022
मंत्री, राष्ट्र, दुर्ग, कोष और दण्ड - ये पाँच प्रकृति कहे गए हैं। अपने और शत्रु पक्ष के मिलाकर इन्हें दस वर्ग कहा जाता है। अपने पक्ष में इनकी अधिकता से बढ़ोत्तरी होती है और इनकी कमी से घाटा। यदि दोनों पक्ष में ये समान हों को यथास्थिति कायम रहती है। कोशस्योपार्जनरतिर्यमवैश्रवणोपमः। वेत्ता च दशवर्गस्य स्थानवृद्धिक्षयात्मनः।। राजा को न्याय करने में यम के समान और धन अर्जन में कुबेर के समान होना चाहिये। राजा को स्थान, वृद्धि और क्षय के अनुरूप दस वर्गों का सदा ध्यान रखना चाहिये। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E13 · Mon, August 01, 2022
यदि शत्रु अपने से बलवान हो तो उससे मेल कर लेना ‘सन्धि’ कहलाता है। दोनों का बल समान होने पर युद्ध जारी रखना ‘विग्रह’ है। दुर्बल शत्रु के दुर्ग पर आक्रमण करने को ‘यान’ कहते हैं। अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु के आक्रमण करने पर दुर्ग के अंदर रहकर आत्मरक्षा करने को ‘आसन’ कहते हैं। यदि शत्रु माध्यम श्रेणी का हो तो उसके प्रति ‘द्वैधीभाव’ का सहारा लिया जाता है अर्थात् बाहर कुछ और और अंदर कुछ और व्यवहार किया जाता है। आक्रमणकारी से प्रताड़ित होकर मित्र की सहायता लेने को ‘समाश्रय’ कहते हैं। न विश्वसेच्च नृपतिर्न चात्यर्थं च विश्वसेत्। षाड्गुण्यगुणदोषांश्च नित्यं बुद्धयावलोकयेत्।। राजा किसी पर भी विश्वास न करे। विश्वसनीय व्यक्ति का भी अधिक विश्वास न करे। राजनीति के छः गुणों सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और समाश्रय का अपनी बुद्धि द्वारा निरीक्षण कर उपयोग करे। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E12 · Fri, July 29, 2022
प्रजावर्ग को प्रसन्न रखना ही राजा का सनातन धर्म है। सत्य की रक्षा और व्यवहार की सरलता ही राजा का कर्तव्य है। जो प्रजा के धन का नाश न करे, उनको जो चाहिये वो समय पर उपलब्ध कराए, पराक्रमी, सत्यवादी और क्षमाशील बना रहे - ऐसा राजा कभी पथभ्रष्ट नहीं हो सकता। प्रजा की रक्षा न करने से बढ़कर राजाओं के लिये दूसरा कोई पाप नहीं है। चातुर्वर्ण्यस्य धर्माश्च रक्षितव्या महीक्षिता। धर्मसंकररक्षा च राज्ञां धर्मः सनातनः।। राजा को चारों वर्णों के धर्मों की रक्षा करनी चाहिये और प्रजा को धर्म के मार्ग से भ्रमित होने से बचाना ही राजा का सनातन धर्म है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E11 · Mon, July 25, 2022
राज्य के सात अंग हैं - राजा, मंत्री, मित्र, कोष, देश, दुर्ग और सेना। जो इन सात अंगों के विपरीत आचरण करे वह दण्डनीय है, फिर चाहे वो मित्र हो या गुरु या बन्धु। इस विषय में प्राचीन काल में राजा मरुत्त का यह श्लोक कहा जाता है, गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः। उत्पथप्रतिपन्नस्य दण्डो भवति शाश्वतः।। अर्थात् घमंड में भरकर कर्तव्य और अकर्तव्य का ज्ञान न रखने वाला तथा कुमार्ग पर चलने वाला मनुष्य यदि अपना गुरु भी हो तो उसे दण्ड देने के सनातन विधान है। जिस प्रकार राजा सगर ने प्रजा के हित के लिये अपने ज्येष्ठ पुत्र असमंज का भी त्याग कर दिया था। इस प्रकरण का विवरण आप हमारी गंगावतरण कथा में देख सकते हैं। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E10 · Fri, July 22, 2022
राजा को सदा ही उद्योगशील अर्थात् कर्मठ होना चाहिये। जो राजा उद्योग को छोड़कर बेकार बैठा रहता है उसकी प्रशंसा नहीं होती। इस विषय में शुक्राचार्य ने यह श्लोक कहा है, द्वाविमौ ग्रसते भूमिः सर्पो बिलशयानिव। राजानं चाविरोद्धारं ब्राह्मणं चा प्रवासिनम्।। मतलब जैसे साँप बिल में रहने वाले चूहों को निगल जाता है, उसी प्रकार शत्रुओं से युद्ध न करने वाले राजा और विद्याध्ययन न करने वाले ब्राह्मण को पृथ्वी निगल जाती है। अर्थात् वे बिना कुछ कर्म किये ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं। जो सन्धि के योग्य हो उससे सन्धि और जो विरोध करने योग्य हो उसका डटकर विरोध करना चाहिये। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E9 · Mon, July 18, 2022
सेवकों के साथ अधिक हंसी-खेल नहीं करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से सेवक मुँहलगे हो जाते हैं और स्वामी का अपमान कर बैठते हैं। वे अपनी मर्यादा में स्थिर न रह कर आज्ञा की अवहेलना करने लग जाते हैं। ऐसे सेवक राजा को कोसते हैं, उसके प्रति क्रोध रखते हैं और गोपनीय बातों को उजागर कर सकते हैं। ऐसे सेवक दिये गए कार्य को अच्छे से नहीं करते और राज्य का अहित कर सकते हैं। ऐसे लोग राजा की मर्यादा का परिहास करते हैं और दूसरों के सामने राजा को अपनी कठपुतली बताते हैं। एते चैवा परे चैव दोषाः प्रादुर्भवन्त्युत। नृपतौ मार्दवोपेते हर्षुले च युधिष्ठिर।। राजा जब परिहासशील और कोमल स्वभाव का हो जाता है तब ये ऊपर बताये हुए तथा दूसरे दोष भी प्रकट होते हैं। इसीलिये एक कुशल राजा को अत्यधिक परिहास से परे रहना चाहिये और कठोरता और कोमलता का यथानुसार उपयोग करना चाहिये। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E8 · Fri, July 15, 2022
राजा का प्रजा के प्रति व्यवहार गर्भवती स्त्री की तरह होना चाहिये। जिस प्रकार एक गर्भवती स्त्री अपने मन को अच्छे लगने वाले भोजन इत्यादि का त्यागकर वही करती है जो गर्भ में स्थित शिशु के लिये उचित होता है, उसी प्रकार धर्मात्मा राजा को अपनी प्रजा के साथ बर्ताव करना चाहिये। वर्तितव्यं कुरुश्रेष्ठ सदा धर्मानुवर्तिना। स्वं प्रियं तु परित्यज्य यद् यल्लोकहितम् भवेत्।। एक धर्मात्मा राजा को अपने को प्रिय लगने वाले विषय का परित्याग करके जिसमें सभी लोगों का हिट हो वह कार्य करना चाहिये। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E7 · Mon, July 11, 2022
एक आदर्श राजा को समस्त व्यसनों का परित्याग कर देना चाहिये और उनके ऊपर आसक्ति नहीं रखनी चाहिये और उनसे उदासीन रहना चाहिये और सबके साथ द्वेषपूर्वक व्यवहार नहीं करना चाहिये क्योंकि, लोकस्य व्यसनी नित्यं परिभूतो भवत्युत। उद्वेजयति लोकं च योऽतिद्वेषी महीपतिः।। व्यसनों में आसक्त हुआ राजा सदा सभी लोगों के लिये अनादर का पात्र होता है और जो राजा सभी के प्रति द्वेष रखता है, वह सभी लोगों को व्याकुल कर देता है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E6 · Fri, July 08, 2022
भीष्म पितामह के अनुसार राजा को सदा ही क्षमाशील नहीं बने रहना चाहिये, क्योंकि सदा क्षमाशील राजा कोमल स्वभाव वाले हाथी के समान होता है और भय के अभाव में अधर्म को बढ़ाने में सहायक होता है। इसी बात को लेकर देवगुरु बृहस्पति का यह श्लोक महत्वपूर्ण है, क्षममाणं नृपं नित्यं नीचः परिभवेज्जनः। हस्तियन्ता गजस्यैव शिर एवारुरुक्षति।। अर्थात् नीच मनुष्य क्षमाशील राजा का सदा उसी प्रकार तिरस्कार करते हैं, जैसे हाथी का महावत उसके सर पर ही चढ़े रहना चाहता है। इसीलिये राजा को न ही बहुत क्षमाशील होना चाहिये और न ही अत्यधिक दण्ड देना चाहिये। दोनों के बीच संयम बनाकर रखना ही कुशल राजा की पहचान है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E5 · Mon, July 04, 2022
भीष्म पितामह कहते हैं कि रेत, जल, पृथ्वी, वन, पर्वत और मनुष्य - इन छः प्रकार के दुर्गों में मनुष्य दुर्ग सबसे प्रधान है। उक्त सभी दुर्गों में मानव दुर्ग को जीत पाना सबसे कठिन माना गया है। तस्मान्नित्यं दया कार्या चातुर्वर्ण्ये विपश्चिताः। धर्मात्मा सत्यवाक् चैव राजा रंजयति प्रजाः।। अर्थात् विद्वान राजा को चारों वर्णों पर सदा दया करनी चाहिये। इस प्रकार दयालु, धर्मात्मा और सत्यवादी नरेश ही प्रजा को प्रसन्न रख पाता है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E4 · Fri, July 01, 2022
पितामह भीष्म के अनुसार राजा को सभी कार्यों में सरलता और कोमलता का आचरण करना चाहिये, परन्तु नीतिशास्त्र के अनुसार अपनी दुर्बलता, अपनी मंत्रणा और अपने कार्य-कौशल को गुप्त रखने में सरलता का आचरण करना उचित नहीं है। मृदुर्हि राजा सततं लंघयो भवति सर्वशः। तीक्ष्णाच्चोद्विजते लोकस्तस्मादुभयमाश्रय।। जो राजा सदा कोमलता पूर्वक बर्ताव करता है उस की आज्ञा का लोग उल्लंघन कर जाते हैं, और केवल कठिन बर्ताव करने से लोग व्याकुल हो जाते हैं, अतः राजा को आवश्यकतानुसार कठोरता और कोमलता दोनों का आचरण करना चाहिये। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E3 · Mon, June 27, 2022
पितामह कहते हैं कि सत्य के सिवा दूसरी कोई वस्तु राजाओं के लिये सिद्धिकारक नहीं है। सत्यपरायण राजा इस लोक और परलोक दोनों में सुख प्राप्त करता है। राजाओं के लिये सत्य से बढ़कर दूसरा कोई ऐसा साधन नहीं है जो प्रजावर्ग में उसके प्रति विश्वास उत्पन्न कर सके। गुणवान् शीलवान् दान्तो मृदुर्धम् र्यो जितेन्द्रियः। सुदर्शः स्थूललक्ष्यश्च न भ्रश्येत सदा श्रियः।। अर्थात् जो राजा गुणवान, शीलवान, मन और इंद्रियों को संयम में रखने वाला, कोमल स्वभाव, धर्मपरायण, प्रसन्नमुख और दान देने वाला उदारचरित है, वह कभी राजलक्ष्मी से भ्रष्ट नहीं होता। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
S1 E2 · Thu, June 23, 2022
पितामह भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं पुरुषार्थ अर्थात् कर्म और प्रारब्ध अर्थात् भाग्य में सदा पुरुषार्थ के लिये प्रयास करना। पुरुषार्थ के बिना केवल प्रारब्ध राजाओं के कार्य नहीं सिद्ध कर सकता। कार्य की सिद्धि में प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों का योगदान होता है, परंतु मैं पुरुषार्थ को ही श्रेष्ठ मानता हूँ क्योंकि प्रारब्ध तो पहले से ही निर्धारित होता है। विपन्ने च समारम्भे संतापं मा स्म वै कृथाः। घटस्वैव सदाऽऽत्मानं राज्ञामेष परो नयः।। अर्थात् यदि आरम्भ किया हुआ कार्य पूरा न हो सके अथवा उसमें बाधा पड़ जाए तो इसके लिये अपने मन में दुःख नहीं मानना चाहिये। तुम सदा अपने कर्म पर ध्यान दो, यही राजाओं के लिये उत्तम नीति है। Learn more about your ad choices. Visit megaphone.fm/adchoices
Trailer · Tue, June 21, 2022
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